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Showing posts from 2020

आज़ाद हूं!

आज़ाद लहरें, टकरा के जैसे अपनी ही मौज में तोड़ती हैं साहिल को - कतरा-कतरा, अपना रास्ता बनाती; कभी कभी उफनते जज़्बात बह निकलते हैं सब्र का बांध तोड़ आँखों के किनारों से। गुजर जाए जब कोई ऐसी गमगीन शब – रात की जमा किरचों को ठंडे पानी के धार से धो लेता हूँ और निकल जाता हूँ वापस एक नई मौज़ पर सवार एक नए सफ़रनामे की तलाश में।                          28-नवम्बर-2020

यादों की गठरी

कहते हैं – घर में छुपे किसी सामान से, बिगड़ जाता है घर का वास्तु; और छिन जाती है शांति। यही सोच कर शायद, जानबूझकर छोड़ी थी मैंने, तुम्हारे मन-मंदिर के एक अनछुए कोने में – जहां पहुँच ना सके तुम्हारे हाथ, या नज़र - अपनी यादों की गठरी। छुपाई थी – स्वार्थ वश ताकि, दूर चले जाने पर भी कभी-ना-कभी मेरा ख़याल, किसी नशेमन में कर सके तुम्हें बेचैन। बँधी है उस गठरी में कितनी ही शामें – कुछ नर्म, कुछ सर्द कुछ – पसीने से भीगी। कितनी सुबहें, तुम्हारे गीले बालों से झटकती बूंदें। कितनी रातें, मेरे कंधे पर टिका तुम्हारा सिर, और सीने पर बिखरी जुल्फ़ें। कितनी अलसाई दोपहरी - छोड़े हैं मैंने, तुम्हारी गर्दन पर, कान के नीचे – अपनी तप्त साँसों की भाप; और तुम्हारी कमर पर अपनी उँगलियों के एहसास। शायद किसी सर्द शाम में तुम्हारे काँपते कंधों पर रखा था अपनी जैकेट का भार; देखी थी किसी उदास शाम में तुम्हारे गालों पर ढलके अश्क़ और किसी खिलखिलाती सुबह की रोशनी-सी, तुम्हारे होंठों पे हँसी। भारी थी बहुत, जब बांधी थी मैंने वो गठरी – अपने अकेले कंधे पर उसका बोझ गवारा नहीं था मुझे! हाँ – स्वार्थी था मैं – छोड़ दिया था मैंन

बनारस - हरिश्चंद्र घाट

हरिश्चंद्र घाट पर, एक चट्टान पर बैठा एक रेतीले ढलाव के अंत पर, पानी की कगार पर – राख से काली पड़ चुकी है जो। लकड़ी का एक ऊँचा ढेर जल रहा है और एक आदमी का सिर उल्टा लटका है गहरा गयी है नाक और अधजला मुँह काले बिखरे बाल, बाकी – छातियाँ – पेट – एक ही रेखा में, जाँघों के बराबर चिता के ऊपर बिछे और दूसरी ओर पैर बाहर निकले – जिनकी अंगुलियाँ तपकर सिकुड़ गई हों – मुड़ गयी हों। चीत्कार मारते बत्तख़, और भीड़ लगाए सारस – सुराहीदार गर्दन वाले – का याराना मिलकर छिछले पानी की कगार में चोंच मारते इस आग से, कुछ ही फुट दूर।                               एलेन गिन्सबर्ग                               (इंडियन जर्नल्स 1962-63)                               अनुवाद - दिवाकर एपी पाल

सब मिथ्या है!

मिथ्या से ही मिथक बने मिथकों से ही बनी कहानी वही कहानी, बदल बदल कर सुनाए नाना नानी। वही कहानी जोड़ जोड़ कर, काव्य बने - महाकाव्य बने। जो जीता वो ईष्ट हुआ, जो हारा वो दुष्ट। वही कहानी रूप बदल कर जहाज़ों के संग पार चली, यवनों के देव असुर बने आर्यों के असुर देव!                     (25 अगस्त 2020)

मजदूर - शेरनाज़ वाडिया

सतह से पांच मंज़िल दूर, एक झूले से लटका - मानों बिना सुरक्षा जाल के एक कलाबाज़ ।  बड़ी कशिश से चुपड़ता है सिमेंट एक बार।  बार-बार; और दीवारें खूबसूरत और जीवंत होती जाती हैं - पानी से बची रहेंगी ये, भविष्य में. पर.. उसकी खुद की कोई सुरक्षा योजना नहीं है - अपने स्वास्थ्य और ज़िन्दगी के लिये. टीबी से अवरुद्ध फ़ेंफ़ड़े लगभग फ़ट-से पड़ते हैं लगातार टीसती खाँसी से।  उसके सपने और उनकी पूर्ती पुराने आवरण की तरह।  छिज़ जाती है - तार-तार होकर और नये - गणित ही गलत हैं - उसकी मजदूरी के अर्थशास्त्र में! घटते, और विभाजित: खोए तज्यअस्तित्व के खपत में।                      “द लेबरर” – शेरनाज वाडिया                          अनुवाद – दिवाकर एपी पाल

बरसाती शाम

आज फिर रात को, तेज़ बारिश के आसार हैं, मॉनसून ने दस्तक दे दी है। बदली से ढंके आसमान को देख, कई साल पहले की वो शाम याद आ गई, हाँ, ऐसी ही तो थी, वो बरसाती शाम! उस रोज़ भी शाम यूं ही, जल्द घिर आयी थी, और कॉलेज से थोड़ा जल्दी आ गया था मैं- तुम्हें, बिना बताए। और उस शाम, तुम्हारा फोन आया – कई बार, तुम्हें खाने थे – मिश्रा की दूकान के पकौड़े, हलकी बारिश में – अपने दुपट्टे को आंचल बना ओढ़ - अदरक वाली चाय की चुस्कियों के साथ। और इधर मुझे यारों ने, सस्ती व्हिस्की पिला, चिप्स के साथ बिठा लिया था - कैरम खेलने एक लापरवाह शाम के बहाने; और फोन नहीं उठाया था, मैंने तुम्हारा! कितना लड़ी थी तुम, कितनी माफियां मांगी थी मैंने, और अगले दिन, नाराज़ तुम कॉलेज नहीं आई। और फिर, मूसलाधार बारिश में भींग – छतरी तब भी नहीं रखता था मैं – तुम्हारे हॉस्टल के नीचे, ऑमलेट और पाव लेकर, तुम्हें मनाया था, ठंडी-कटिंग चाय के साथ। चलो इसी याद के नाम, एक चाय पिला दो - वही अदरक वाली।                              ( जून 2020)

रक्त-गीत - मलय राय चौधरी

अवन्तिका!  छापा पड़ा था, मेरे घर में,  आधी रात को, तुम्हे ढूंढते हुए  इसकी तरह नहीं, ना ही उसकी तरह,  और उनकी तरह तो बिल्कुल भी नहीं तुलना-हीन:  इसकी, उसकी या किसी से भी क्या किया है मैंने,  कावित्त के लिए,  धधकते, लावा उगलते ज्वालामुखी में प्रवेश करके?  क्या हैं ये?  क्या हैं ये?  घर की तलाशी का परिणाम कावित्त का?  नशेमन भूरे बच्चे, पिता की टूटी अल्मारी से  कावित्त का!  पुराने बुँदिले बक्से को फ़ाड़कर  निकली हुई माँ की बनारसी साड़ीयाँ  कावित्त का!  साँसें दर्ज़ हैं,  जब्ती-सूची में  कावित्त का?  दिखाओ, दिखाओ मुझे,  और क्या क्या निकल आ रहा है?  कावित्त का!  शर्म करो;  लड़की द्वारा आधे-चाटकर  परित्यक्त लड़के! मरो, तुम मरो  कावित्त का!  लहरों को चीरती शार्क  चबा जाती हैं माँस और हड्डियाँ कावित्त का!  एबी नेगेटिव सूर्य,  क्षुद्रांत की गाँठों से कावित्त का!  अधीर पदचिन्हों मे सहेजे -  घुँटी रफ़्तार कावित्त का!  मल-मूत्र से भरे कारा में  नाजुक तीखी-चमक  कावित्त का!  भँवरे के कंटकी पैरों से चिपका  सरसों का पराग कावित्त का!  लावणी-सूखे खेत मे  गंदे लंगोट मे लिपटा एक भूखा किसान कावित्त का!  लाशखोर गिद

नोटबुक

पड़े हैं, बिस्तर के करीब कई मोमबत्तियों के पिघले टुकड़े - माचिस की अधजली तीलियाँ; ये पूरी भरी हुई ऐशट्रे और खाली रम की बोतलें. दर्ज़ हैं कई उलझे ख़्याल - दबे से जज़्बात. खो चुके हैं कितने मिसरे, कितने ही हर्फ़ इन गुजरी रातों में. अधूरी नज़्मों से रंगे हैं मेरी नोटबुक के पन्ने.                     (02-07-2020 )

सैनिटरी नैपकिन - मलय रॉय चौधरी

प्रेम, उस लड़की की तरह है, जिसे स्कूल छोड़ देना पड़ता था हर माह, साढ़े तीन दिन पहनना पड़ता था कपड़े में बाँध सूखे घास, और बरसात के दिनों में, चुँकि घास हरी होती है तो, कपड़े में राख बाँध, ताकि सोख सके मासिक स्राव - और अकेली बैठे, किताबों से दूर.                                मलय राय चौधरी                               अनुवाद: दिवाकर एपी पाल

शांति

स्तब्ध, नि:शब्द, भावहीन प्रस्तर-सम नयन - नीरहीन। शून्य को समर्पित दृष्टि, दृष्यहीन। कोप नहीं, द्वेष नहीं, राग नहीं, वैराग्य नहीं शोक नहीं और हास्य नहीं - पूर्णत: संवेदनहीन। और ठीक समक्ष, बैठी है वो, देखती खुद को, एक मुस्कुराहट, अधरों पर लिए मुख पर, एक असीम शांति। बंधनमुक्त, अवध्य, अनंत की ओर प्रस्थान को आतुर।                (24 - जून - 2020)

भटकती रुहों की कब्रगाह

सजती है ये कब्रगाह - हर रात एक नई महफ़िल में, मधुर झंकारों के शोर में. आते हैं वे सभी और मनाते हैं शोक अपनी रुह की मौत का - छलकते शराब और सिगरेट के धुओं में; कुछ खुशनसीब - शैम्पेन और सिगार में. इन रुहों मे है: एक पुलिसमैन - छोड़ा जिसने एक दुर्दांत अपराधी को रिश्वत लेकर. एक डौक्टर - जिसने मरीज़ को न देख, उसकी जेब को देखा. एक वकील - जिसने दिलाई एक कातिल को ज़मानत मोटी फ़ीस वसूलकर एक जज़ - जिसने सुनाया था एक गलत फ़ैसला लालच या दबाव में. कुछ ऐसी भी हैं रुहें जो शराब खरीद नहीं सकते खड़े महफ़िल के बाहर शिकायती अंदाज़ में - आखिर उन्हे भी है अपराधबोध! ये कब्रगाह - हर रात सजती है. अफ़सोस है उन्हे अपनी मौतों का - मनाते हैं शोक - पीकर शराब, सिगरेट के धुओं के बीच लज़ीज़ पकवानों का स्वाद लेकर. Translated from my poem "Graveyard of Lost Souls" written in 2013.

पुरानी डायरी

कुछ पुराने कागज़ात ढूँढते वक्त, हाथ आई ये पुरानी डायरी. पीले बदरंग कवर में, सन २००१ की मटमैले पन्ने थोड़े फूले से, शायद कभी भींग गये होंगे - इन गुजरे सालों में. पलटे जो पन्ने मैंने, उत्सुकता मे, और देखा, पुराने पन्नो में दर्ज़ कई कविताएँ, कई ख्याल, और कुछ आकांक्षाएँ. कितने ही हर्फ़, भूल चुका हूँ अब कितने - जिनके आज कोई मायने नहीं. कुछ पन्ने, जिनकी लिखावट धुल गई है, शायद फ़ाउन्टेन पेन से लिखी थी - ये इबारत खास थे, जब लिखे थे, अब मिट गये हैं वक्त के हाथों. एक तस्वीर, चिपका रखी थी मेरे पिता की - एक पन्ने पर. वो आज भी वैसी ही है - अब मुस्कुराती सी दिखती है माँ का साथ जो मिल गया है. एक-दो पत्र - स्टेपल से संजोए कुछ खास नहीं लिखा उनमें, पर आजकल चिट्ठियाँ कौन लिखता है भला. अधिकतर कविताएँ - आज पढ़ा तो हँस पड़ा! लिखना शुरु किया था मैंने, ऐसी बचकानी तुकबंदियों से. उन ख्यालों को किसी दिन, फ़िर से लिखूंगा एक प्रौढ़ मन से. ये डायरी आधी ही भरी है, और आखिरी दर्ज़ है, २०११ नवम्बर में. लिखना बन्द कर दिया था मैंने - क्यूँ? क्या हुआ उसके बाद? मुझे खुद याद नहीं.                               12-जून -2020

मां

ये आंचल, ये गोद, या शायद सिर्फ तुम्हारा साया है मां! पता नहीं क्यूं, तुमसे बात कर सिर्फ सुकून ही पाया है। भूल चुका हूं, तुम्हारी पहली याद - पता नहीं क्यूं! 3-4 साल की उम्र होगी जब तुम्हे पहली बार देखा था, या देखी थी, तुम्हारी वो जीवट मातृ शक्ति, जो तुम्हारी इकलौती पहचान है। फिर शायद तुम्हारी आदत वापस बन गई। वैसे ही देखा तुम्हे अगले कुछ सालों तक कभी कमजोर पड़ी भी तो हमारे सामने ज़ाहिर ना होने दिया। अकेले ही ढोया अकेले ही झेला, तुम-सा सहनशील, मजबूत, निस्वार्थ और निर्मल किसी और को ना देखा। पहली बार कमजोर देखा था तुम्हे, कुछ महीने पहले! और वो मंजर, शायद सबसे खौफनाक है मेरी ज़िन्दगी का। मां! मर्द होने का दंश है, पर तुम्हारी औलाद शायद पहले हूं! रोना आता है, पर तुम्हारे सामने मुस्कुराता हूं, बस यही सोच सोच की कहीं, मेरी पलकों में तुम्हें कोई कतरा दिख ना जाए। पता है मुझे, मां मेरी आंखों के आंसू, तुमसे बर्दाश्त नहीं होते। नहीं रोऊंगा मैं मां, कम से कम, तुम्हारे सामने नहीं! आखिर एक वादा किया था, कुछ 20 साल पहले अपने मन में! पर आज उस