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Showing posts from July, 2020

मजदूर - शेरनाज़ वाडिया

सतह से पांच मंज़िल दूर, एक झूले से लटका - मानों बिना सुरक्षा जाल के एक कलाबाज़ ।  बड़ी कशिश से चुपड़ता है सिमेंट एक बार।  बार-बार; और दीवारें खूबसूरत और जीवंत होती जाती हैं - पानी से बची रहेंगी ये, भविष्य में. पर.. उसकी खुद की कोई सुरक्षा योजना नहीं है - अपने स्वास्थ्य और ज़िन्दगी के लिये. टीबी से अवरुद्ध फ़ेंफ़ड़े लगभग फ़ट-से पड़ते हैं लगातार टीसती खाँसी से।  उसके सपने और उनकी पूर्ती पुराने आवरण की तरह।  छिज़ जाती है - तार-तार होकर और नये - गणित ही गलत हैं - उसकी मजदूरी के अर्थशास्त्र में! घटते, और विभाजित: खोए तज्यअस्तित्व के खपत में।                      “द लेबरर” – शेरनाज वाडिया                          अनुवाद – दिवाकर एपी पाल

बरसाती शाम

आज फिर रात को, तेज़ बारिश के आसार हैं, मॉनसून ने दस्तक दे दी है। बदली से ढंके आसमान को देख, कई साल पहले की वो शाम याद आ गई, हाँ, ऐसी ही तो थी, वो बरसाती शाम! उस रोज़ भी शाम यूं ही, जल्द घिर आयी थी, और कॉलेज से थोड़ा जल्दी आ गया था मैं- तुम्हें, बिना बताए। और उस शाम, तुम्हारा फोन आया – कई बार, तुम्हें खाने थे – मिश्रा की दूकान के पकौड़े, हलकी बारिश में – अपने दुपट्टे को आंचल बना ओढ़ - अदरक वाली चाय की चुस्कियों के साथ। और इधर मुझे यारों ने, सस्ती व्हिस्की पिला, चिप्स के साथ बिठा लिया था - कैरम खेलने एक लापरवाह शाम के बहाने; और फोन नहीं उठाया था, मैंने तुम्हारा! कितना लड़ी थी तुम, कितनी माफियां मांगी थी मैंने, और अगले दिन, नाराज़ तुम कॉलेज नहीं आई। और फिर, मूसलाधार बारिश में भींग – छतरी तब भी नहीं रखता था मैं – तुम्हारे हॉस्टल के नीचे, ऑमलेट और पाव लेकर, तुम्हें मनाया था, ठंडी-कटिंग चाय के साथ। चलो इसी याद के नाम, एक चाय पिला दो - वही अदरक वाली।                              ( जून 2020)

रक्त-गीत - मलय राय चौधरी

अवन्तिका!  छापा पड़ा था, मेरे घर में,  आधी रात को, तुम्हे ढूंढते हुए  इसकी तरह नहीं, ना ही उसकी तरह,  और उनकी तरह तो बिल्कुल भी नहीं तुलना-हीन:  इसकी, उसकी या किसी से भी क्या किया है मैंने,  कावित्त के लिए,  धधकते, लावा उगलते ज्वालामुखी में प्रवेश करके?  क्या हैं ये?  क्या हैं ये?  घर की तलाशी का परिणाम कावित्त का?  नशेमन भूरे बच्चे, पिता की टूटी अल्मारी से  कावित्त का!  पुराने बुँदिले बक्से को फ़ाड़कर  निकली हुई माँ की बनारसी साड़ीयाँ  कावित्त का!  साँसें दर्ज़ हैं,  जब्ती-सूची में  कावित्त का?  दिखाओ, दिखाओ मुझे,  और क्या क्या निकल आ रहा है?  कावित्त का!  शर्म करो;  लड़की द्वारा आधे-चाटकर  परित्यक्त लड़के! मरो, तुम मरो  कावित्त का!  लहरों को चीरती शार्क  चबा जाती हैं माँस और हड्डियाँ कावित्त का!  एबी नेगेटिव सूर्य,  क्षुद्रांत की गाँठों से कावित्त का!  अधीर पदचिन्हों मे सहेजे -  घुँटी रफ़्तार कावित्त का!  मल-मूत्र से भरे कारा में  नाजुक तीखी-चमक  कावित्त का!  भँवरे के कंटकी पैरों से चिपका  सरसों का पराग कावित्त का!  लावणी-सूखे खेत मे  गंदे लंगोट मे लिपटा एक भूखा किसान कावित्त का!  लाशखोर गिद

नोटबुक

पड़े हैं, बिस्तर के करीब कई मोमबत्तियों के पिघले टुकड़े - माचिस की अधजली तीलियाँ; ये पूरी भरी हुई ऐशट्रे और खाली रम की बोतलें. दर्ज़ हैं कई उलझे ख़्याल - दबे से जज़्बात. खो चुके हैं कितने मिसरे, कितने ही हर्फ़ इन गुजरी रातों में. अधूरी नज़्मों से रंगे हैं मेरी नोटबुक के पन्ने.                     (02-07-2020 )

सैनिटरी नैपकिन - मलय रॉय चौधरी

प्रेम, उस लड़की की तरह है, जिसे स्कूल छोड़ देना पड़ता था हर माह, साढ़े तीन दिन पहनना पड़ता था कपड़े में बाँध सूखे घास, और बरसात के दिनों में, चुँकि घास हरी होती है तो, कपड़े में राख बाँध, ताकि सोख सके मासिक स्राव - और अकेली बैठे, किताबों से दूर.                                मलय राय चौधरी                               अनुवाद: दिवाकर एपी पाल