Posts

Showing posts from April, 2011

दुविधा - मलय राय चौधरी

घेर लिया मुझे,  वापसी के वक्त.  छह या सात होंगे वे.  सभी हथियारबंद.  जाते हुए ही लगा था मुझे कुछ बुरा होने को है.  खुद को मानसिक तौर पर तैयार किया मैंने,  कि पहला हमला मैं नहीं करूँगा. एक लुटेरे ने  आस्तीन पकड कर कहा:  लडकी चाहिए क्या? मामा! चाल छोड कर यहाँ कैसे? खुद को शांत रखने की कोशिश मे  भींचे हुए दाँत.  ठीक उसी पल  ठुड्डी पर एक तेज़ प्रहार और महसूस किया मैंने,  गर्म, रक्तिम-झाग का प्रवाह. एक झटका सा लगा,  और बैठ गया मैं, गश खाकर. एक खंजर की चमक;  हैलोजन की तेज़ रोशनी का परावर्तन और एक फ़लक पर राम,  और दूसरी पर काली के चिन्ह. तुरन्त छँट गयी भीड.  ईश्वरीय सत्ता की शक्ति शायद कोई नहीं जान सकता.  जिन्नातों की-सी व्यवहारिकता: मानव-मन की दुविधा -  प्रेम से प्रेम नहीं कर सकता. वे छह-सात लोग,  घेर रखा था जिन्होने मुझे; रहस्यमयिता से गायब हो गये.                दोतन - मलय राय चौधरी                          (१९८६)                अनुवाद - दिवाकर एपी पाल  Dated: 27 April, 2011.

"प्रस्तुति" (प्रस्तुति(१९८५)- मलय राय चौधरी) का हिंदी अनुवाद

कौन कहता है, बर्बाद हूँ मैं, बस यूँ, कि विष-दंत, नख हीन हूँ मैं? क्या अपरिहार्यता है उनकी? कैसे भूल सकते हैं वो खंजर उदर में मूठ तक धंसा हुआ? इलायची की हरी पत्तियाँ प्रतिरोध के लिए, घृणा एवं रोष मे कलारत; हाँ, युद्ध की भी; साँस-विहीन, बंधक, सन्थाल औरत फटे फ़ेंफ़डों से सुर्ख; विरक्त खन्जर.. गर्वान्वित खङग का हृदय से खिंचना? निःशब्द हूँ मैं संगीतहीन, गीतहीन. शब्दों के नाम पर, सिर्फ़ चीत्कारें. वन की शब्दहीन बू. सन्यास-रिश्तों और पापों का कोण; प्रार्थी एक आवाज़ का, जो कराहों को वापस बदल सके. सहन योग्य शक्ति में; निर्भय बारूद की विभीषिका से: अपंग दयालुता की- उम्मीद ही मूर्खता है- जुए की बिसात पर मैं, खंजर दाँतों में दबाए घेर रखा है मुझे, चारों ओर से, चाय और कौफ़ी की धार ने, मुँह-माँगी मज़दूरी की बेडियों में जकडा; जरासंध के जंघा की तरह विभाजित, हीरों-सी आभा हराने की कला ही एकमात्र विद्वता. बेचारगी में चोरों की ज़ुबान, को संगीत मानकर. मोम-सा नाज़ुक प्रेम, सेब-सा लालिम जिस्म. समागम से पूर्व; चींटी का पँख-हीन हो जाना. खम ठोंक-कर सर्व-शक्तिमान को ललकारता हूँ मैं, ब्रम्हांड को छोड जाने को च