मजदूर - शेरनाज़ वाडिया
एक झूले से लटका -
मानों बिना सुरक्षा जाल के
एक कलाबाज़ ।
बड़ी कशिश से चुपड़ता है सिमेंट
एक बार। बार-बार;
और दीवारें खूबसूरत और
जीवंत होती जाती हैं -
पानी से बची रहेंगी ये,
भविष्य में.
पर..
उसकी खुद की
कोई सुरक्षा योजना नहीं है -
अपने स्वास्थ्य और ज़िन्दगी के लिये.
टीबी से अवरुद्ध फ़ेंफ़ड़े
लगभग फ़ट-से पड़ते हैं
लगातार टीसती खाँसी से।
उसके सपने और उनकी पूर्ती
पुराने आवरण की तरह।
छिज़ जाती है - तार-तार होकर
और नये -
गणित ही गलत हैं -
उसकी मजदूरी के अर्थशास्त्र में!
घटते, और विभाजित:
खोए
तज्यअस्तित्व के खपत में।
“द लेबरर” – शेरनाज वाडिया
अनुवाद – दिवाकर एपी पाल
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