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Showing posts from 2011

अस्तित्व - मलय राय चौधरी

सन्न- आधी रात को दरवाजे पर दस्तक. बदलना है तुम्हे, एक विचाराधीन कैदी को. क्या मैं कमीज़ पहन लूँ? कुछ कौर खा लूँ? या छत के रास्ते निकल जाऊँ? टूटते हैं दरवाजे के पल्ले, और झड़ती हैं पलस्तर की चिपड़ियाँ; नकाबपोश आते हैं अंदर और सवालों की झड़ियाँ- "नाम क्या है, उस भेंगे का कहाँ छुपा है वो? जल्दी बताओ हमें, वर्ना हमारे साथ आओ!" भयाक्रांत गले से कहता हूँ मैं: "मालिक, कल सूर्योदय के वक्त, उसे भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला".                अस्तित्व (१९८५) - मलय राय चौधरी                 अनुवाद: दिवाकर एपी पाल

एक बूँद

प्रेरणा: प्रभात झा https://www.facebook.com/note.php?note_id=217835308263751 एक बूँद जो जहाँ जाए, उसी की हो जाए एक बूँद, जो रेत में गिरे तो खो जाए. एक बूँद, प्यासे की प्यास नहीं बुझाती; पर एक बूँद, जो प्यासे को आस है जगाती. एक बूँद, जो दिखती तो है, पर अस्तित्व नहीं रखती; एक बूँद, जिसकि हस्ती मिसाल कायम है करती. पर जब मिल जाए एक-एक बूँद; सैलाब बन, सेहरा को हरियाए. उस एक बूँद को सलाम, जो जन-सैलाब को रास्ता है दिखाए.. Dated: 22 August,2011

प्रस्तुति - मलय राय चौधरी

कौन कहता है कि बर्बाद हूँ मैं? बस यूँ, कि विष-दन्त नख-हीन हूँ? क्या अपरिहार्यता है उनकी? कैसे भूल गए वो खन्जर? उदर में मूठ तक घुसा हुआ? बकरे के मुँह में इलायची की हरी पत्तियाँ, वे सब घटनाएँ? घृणा-कला, क्रोध-कला, युद्ध-कला! बन्धक युवती सन्थाल; फ़टे फ़ेफ़ड़ों से सुर्ख, खुखरी की चमकती बेचैनी? वो सब? हृदय के खून से लथपथ, खिंचे हुए गर्वान्वित चाकू? गीतहीन हूँ मैं, संगीतहीन- सिर्फ़ चीत्कारें जितना खोल सकता हूँ मुख- निर्वाक वन की भेषज़ सुगन्ध; हरम - सन्यास या अंध-कोठरी! मैंने कभी नहीं कहा, "जिव्हा दो, जिव्हा वापस लो कराहें! दाँत भींचे हुए, सहनशक्ति, वापस लो!" निर्भय बारुद कहेगा: "एक मात्र शिक्षा है मूर्खता". हाथ-हीन, अपंग दांतो में खन्जर दबाए, कूद पड़ा हूँ, जुए कि बिसात पर. घेर लो मुझे, चारों ओर से चले आओ, जो जहाँ हो, नौकरीशुदा शिकारी के जूते में- जरासन्ध के लिंग, जिस तरह विभाजित हीरों की झुलसती आभा। हाथ पैर चलाने के अलावा और कोई ज्ञान, बचा नहीं जगत में सेब के जिस्म की तरह मोम-मखमली नाज़ुक स्नेह समागम से पहले पँख खोल कर रख देगी चींटी. खम ठोंक कर मैं भी ललकारता हूँ ये विक

अम्माँ - तबिष खैर

इस घर में सीढ़ीयों के नीचे, जहाँ पलस्तर चिपड़ियों में बदल झड़ता है इसके कमरों से, गलियारों का जाना-पहचाना सूनापन मैं तुम्हारी धीमी पदचाप सुनता हूँ, अम्माँ, रुक-रुक कर आती हैं जो. गर्मी की लंबी दोपहर, जैसे घर के भीतर बिताए; पानी-पटाई खस की टट्टीयाँ; और शीतल पेय- बर्फ़, आम या नींबू के, कटे हुए तरबूजों से सजे प्लेट. धीरे-धीरे तुम देखती हो, हर वो नई खरोंच, पर्दों पर, पहली बरसात से पहले जिन्हें सिलना होगा ये धूप से बचाव करती हैं; एक छज्जे की जरुरत पूरी करती हैं, गठिया-ग्रस्त जोड़ों पर तुम कमरे-से-कमरों में घूमती हो वर्षों के नुकसान का मनन करती कि कब भूत बिसर जाएगा, या कब तक वर्तमान चलता जाएगा. घर की वस्तु-स्थिति को महसूस करने के लिए, तुम्हे चष्मा भी नहीं चाहिए, जबकि एक दूरी से नाती-पोतों को भी नहीं देख सकती; एक बार उल्टा पहना था तुमने ब्लाउज़. कुछ भी नहीं बदला, अम्माँ, अब तक तो नही. हालंकि तुम्हारे उठाए कदम, कभी कोनों को तुममें नहीं बदलते, सफ़ेद माँड़ दिए साड़ी मे, साबुन की खुशबू से घिरी, और सभी पर्दे, एक अर्से से उतार लिए गए हैं.                         

मोटर- बाईक - मलय राय चौधरी

मोटर-बाईक येज़्डी - य़ामाहा पर हूँ मैं जब फ़लक की चुनौती और रेत की आँधी के मध्य मेरे पैरों के निकट फ़टते हैं; खूबसूरत, सजावटी धूम्र-गुबार। बिना हेल्मेट के, और अस्सी की रफ़्तार में हवा को चीरता, मध्य-ग्रीष्म की चाँदनी तले खोती हुई सुदूर ध्वनियाँ; तेज़-चाल लौरियाँ - पलक झपकते गायब सोचने के वक्त से महरुम; पर हाँ, अपघात किसी भी समय संभावित, भंगार में बदल जाऊँगा; सूखाग्रस्त खेत में ढेर।                     मोटर-बाईक - मलय राय चौधरी                     अनुवाद - दिवाकर एपी पाल

मानव-शास्त्र - मलय राय चौधरी

मैं लुटने को तैयार हूँ, आओ, ओ घातक चमगादड़! फ़ाड़ दो मेरे कपड़े, उड़ा दो मेरे घर की दीवारें बन्दूक चलाओ मेरी कनपटी पर और मुझे कारा में पीटो. फ़ेंक दो मुझे चलती ट्रेन से: बंधक रखो और नज़र रखो मुझपे; मैं एक भू-गर्भीय यंत्र हूँ, परमाणु युद्ध की झलक देखने को जीवित एक अधर्मी खच्चरी का नीले-लिंगी अश्व द्वारा गर्भाधान।                प्रौत्योघात - मलय राय चौधरी                अनुवाद - दिवाकर एपी पाल

नज़्म और जज़्बात

A reply to this poem titled "बेनज़्म रात ":  इस बेनज़्म सी रात में  बेकरार क्यूँ हैं.  अपने ही दिल-ओ-दिमाग मे  तकरार क्यूँ है..  क्यूँ नहीं ख्वाब  आँसू बनकर पलकों पे आते,  चट्टान सा ये बोझ सीने पर,  बे-अल्फ़ाज़ क्यूँ है..  आज नज़्म अधूरी है,  कल ख्वाब अधूरे होंगे;  मरासिमों और मरिचिकाओं मे उलझकर,  ये ज़िन्दगी अधूरी होगी..  मकड़-जाल सा तिलिस्म ये कैसा,  घुटन देता है ये जाने क्यूँ..  मगर, आज़ाद हो जाऊँ जिस दिन इन से,  न नज़्म होंगे, न जज़्बात ही होंगे.                  Dated:3 June, 2011

खुशनुमा कत्ल

अक्स आइने में, अकेला नहीं है.. साथ मरदूद, गुलफ़ाम का कातिल भी है खड़ा.. कैसा ये जुर्म है, मरहूम और कातिल एक ही शीशे में हैं खड़े.. और गुस्ताखी की इन्तहाँ तो देखो, एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए भी जा रहे.. अजीब इत्तेफ़ाक है.. कातिल और कत्ली, साथ में हैं खड़े और देखने वाले, मुबारकबाद हैं दे रहे! dated: 25 June,2011

Poetry Recitation by Mr. Malay Roy Chaudhery

प्रवासी - तबिष खैर

नए पैरों पर चलना  सालता है:  व्यञ्जनों का अभिशाप,  लड़खड़ाते स्वर.  और तुम,  जिसके लिए मैनें  अपना साम्राज्य त्याजा;  कभी उसे प्यार न कर सका,  जो मैं थी.  मेरे अतीत में दिखता है तुम्हे;  सिर्फ़ शल्क,  और खर-पतवार.  कभी  एक सुरीली आवाज़ की स्वामिनी,  आज दो पैर हैं मेरे पास.  अब मैं सोचती हूँ,  कभी-कभी,  क्या ये तिज़ारत, सही थी?                  Immigrant  - तबिष खैर                     अनुवाद - दिवाकर एपी पाल  Dated- 28 June,2011 

धुआँ

धुआँ ना हुआ,  मानो दीवार-सी हो गई  जाने किस घड़ी,  तकरार वो हो गई.  मुँह फ़ेर के वो  यूँ गए जबसे  कि ज़िन्दगी मेरी  हलकान सी हो गई..  आज भी भीड़ में  जाती है जो नज़र,  मानो ढूँढती है  उनको ही नज़र  आँखें आज भी धुँधली हैं,  धुआँ छँटता नहीं जाने क्यूँ..             Dated: 18 June, 2011

इरोम की कविता (हिन्दी अनुवाद)

आज़ाद कर दो साँकलों से, मेरे पैर काटों से गुँथी ये बेड़ियाँ एक सँकरे कमरे मे बंद; दोषी: जन्म लिया है मैंने, एक उन्मुक्त पंछी की तरह. कारा के अँधेरे कमरे में कई आवाज़ें गूँजती हैं: चिड़ियों की चहचहाहट से भिन्न, नहीं, ये हँसी नही है! नहीं, ये लोरी नहीं है! माँ की छाती से छिज़ा हुआ बच्चा, एक माँ की धीमी सिसकियाँ धव से बिछुड़ी एक स्त्री एक विधवा की कराह: एक सिपाही के हाथों जनित, एक चीख. दिखता है, आग का एक गोला और अनुगामी है कयामत. इस आग के गोले को विज्ञान ने दी चिंगारी; भाषित प्रयोगों के कारण. इन्द्रियों के सेवक, सभी सम्मोहन में हैं. नशा, सोच का अभिन्न शत्रु नष्ट कर दी है बुद्धिमता; विचार-जन्य कोई प्रयोग नहीं. पर्वत-श्रृंखला से आते राही का चेहरे पर मुस्कान लिए हँसना: यहाँ मेरे विलाप के सिवा कुछ नहीं! कुछ नहीं, जो दृष्टिगत हो: शक्ति, स्वंमेव दर्शा तो नहीं सकती ! कीमती है मानव जीवन पर जीवन के अंत से पूर्व. बनने दो मुझे अँधेरे का प्रकाश; मधु-रस बोया जाएगा; सच्ची विनाशहीनता का आगाज़ होगा. कृत्रिम परों से सुसज्जित, पृथ्वी के कोने-कोने में; जीवन-मृत्यु की विभाजन रेखा के निकट, भोर का गीत गाया जाएगा, सम्

क्षणिका

वक्त की कमी बराबर रह जाती है, पता नहीं कितना व्यस्त है आदमी.. फ़िर खुदा को क्या कोसना, वो तो कतई फ़ुर्सतमंद नहीं. Dated: 10 June, 2011

क्षणिका

भीड़ में खड़ा था वो; दुनिया की निगाहों से ओझल.. इन्तज़ार, अपनी बारी का, जब उसे भी पहचाना जायेगा.. Dated: 4 June, 2011

बदलाव

आधी रात थी, और चाँद भी आधा था, अधूरा ही था मैं तेरे बिना.. जब आगोश में लिया बादलों ने चाँद को, और खिड़की से किरणें नहीं थी आ रहीं.. ठीक उसी वक्त, एक गीला सा स्पर्श, मेरे होठों पे.. और यूँही, दुनिया मेरी वो ना रही... Dated: 11 June, 2011

बदलाव की बयार - चित्रयवनिका

बदलाव की बयार - शरनाज़ इसे बनने दो वह शक्ति जो बहती है शान्ति के आँचल में. एक बंधन जो प्रहरी है, मानवीय भाईचारे का, एक मोक्षक, सम्वेदना-वाहक प्रेम-दूत मानवता का रक्षक, स्वागत है! उस बदलाव की बयार का! बदलाव की बयार - एवरिल हो रही है, पौधों मे फ़ुसफ़ुसाहट; एक नई शुरुआत की, हमारे अन्तर्मन की कामना, सच की तलाश की, एक संज्ञान का जागरण प्रत्यावर्तन हेतु धरती की पुकार एक अंदरुनी चाहत जो है सीमाओं से अनभिज्ञ.. बदलाव की बयार - चित्रयवनिका स्वागत है! उस बदलाव की बयार का! पौधों में, एक नई शुरुआत की सरसराहट; एक शक्ति, जो बहती है शन्ति के परों तले: एक जागृती बचाव हेतु, धरती की पुकार. प्रस्तुत है अब! एक रक्षक सम्वेदना-वाहक सत्यार्थी प्रेम-दूत; मोक्षक: एक अंदरुनी कामना अंतर्मन में रोपित; सीमाओं से अनभिज्ञ एक प्रहरी बंधन मानवीय भाईचारे का. अनुवादित: दिवाकर ए पी पाल Dated 29 May, 2011

शब्द-शक्ति - चित्रयवनिका

शब्द - शक्ति - शेरनाज़ ( पुणे , भारत ) तुम्हारे अनकहे शब्द मेरी आत्मा की बंद किवाडो पर जोरों की दस्तक देते हैं. उनके नि:शब्द आक्षेप मेरे कानों के चुनित वधिरपन को नष्ट कर देते हैं. उनकी निर्बाध शक्ति मेरे अस्तित्व के पटल को लाचार कर देती है. शब्द - शक्ति - एवरिल ( इज़रायल ) शब्द- कितने छलशील है! सत्य की परिभाषा को बदल घृणा एवं असहिष्णुता स्थापित कर दें. फ़िर भी कभी, जब वे उत्पन्न हों एक प्रेम-सम्पन्न स्रोत से बदल के रख दें संसारों को; लिखित-अलिखित, भाषित: या तो एक श्राप, या फ़िर एक वरदान.. शब्द - शक्ति - चित्रयवनिका शब्द-कितने छलशील हैं! बिन कहे सत्य की परिभाषा बदल दें; आत्मा की बंद किवाडों पर जोरों की दस्तक दें. उनके नि:शब्द आक्षेप घृण एवं असहिष्णुता पैदा करें; लिखित-अलिखित, भाषित: किसी के कानों के चुनित वधिरपन को नष्ट कर दें. एक श्राप की तरह किसी के अस्तित्व को लाचार कर दें. फ़िर भी, जब वे उत्पन्न हों, एक प्रेम सम्पन्न स्रोत से: उनकी निर्बाध शक्ति एक ऐसा वरदान है जो दुनिया बदल सके.. - Shernaz (Pune) & Avril (Jerusalem) अनुवादित:

किन्नर कहता है: तबिष खैर

किन्नर कहता है: यदि लज्जा एक कला है,  तो निर्लज्जता एक करतूत:  उद्देश्य तो दोनों का ही  स्व-मात्र की रक्षणा है.  तुम सीखती हो,  हया से नजरें झुकाना;  हम नजरों की तीक्षणता से  बेहयाई का रोष दर्शाते हैं.  उस देश में,  जहाँ नव-वधुएँ  हया की मूरत हैं;  वहीं हम जैसी भी हैं,  जिनकी बेशर्मी,  प्रहार-सम सूरत है.  उनकी कला की ज़रुरत  दूसरों द्वारा उनका भविष्य-निर्धारण;  और यही वह वजह है;  जिसे छुपाते हैं हमारे कार्य.  हम खडे हैं, आमने-सामने,  हम खडे हैं, पीठ से पीठ लगा के:  वो सहती हैं  उसी ’नियामत’ का प्रहार,  जिससे हम वंचित हैं.  जो हमें अलग करता है,  वही हमारी समानता है:  ये सनातन नियम है,  उस दुनिया का  जिसमें पुरुष की प्रधानता है..                         द हिजरा स्पीक्स  - तबिष खैर                           (The Hijra Speaks - Tabish Khair)                      अनुवाद: दिवाकर एपी पाल 

डर

शाम की धुंधली रोशनी की कसम, आने वाली हर रात से डरता हूँ. एक ढर्रे पर चल रही है ज़िन्दगी अर्सा बीत गया है यूँ ही; मैं किसी भी नई शुरुआत से डरता हूँ.. पौ-फ़टती हुई किरणें लाती होंगी उम्मीद का उजाला, मैं उम्मीद की किसी बात से डरता हूँ. रात के अन्धेरे में साया भी साथ नहीं होता; मैं अपने साये के भी साथ से डरता हूँ.. पास न है कुछ खोने को भी, पर खोने के एहसास से डरता हूँ. जो भी हों हालात मेरे; पर बदले हुए हालात से डरता हूँ.. डर-डर के जीता हूँ रोज़ यूँही मैं ज़िन्दगी की हार से डरता हूँ. मौत वो कैसी होगी ज़िन्दगी से अलग; मौत से लडकर, हर रोज़ मैं मरता हूँ.. मैं ज़िन्दगी के खयाल से डरता हूँ. और हर रोज़ एक नई मौत मैं मरता हूँ.. Dated: 15 May,2011

भोजपुरी: जेठ मा गडरिया

सोनवा के घाटवा ले, जाए है गडरिया; भेडन को हाँके-हाँके. भेडियन केहु जाने नाहीं रहिया ई कॉन बाटे; बलुआ ई भुईय़ाँ हई पियरा-धूसरा. खेतवा मे जोतेला सोंसे जुटले किसनवन मये; ई गडरिया करिहे का? लू-जेठ के महीना बा पूछी के हो इनका. भेडियन से बोले है गडरिया: " अगहन आई बिहान कोई दिन; फ़िरते दिनहू हमरा हो. दियरा के सूखल घसिया माहे काटब ई दुपहरा ".. Dated: 10 May,2011 For English translation, kindly click the below link: http://damaurya.blogspot.com/2011/05/shepherd-in-summer.html

चलो

मिल जायेगा .. और एक हसीन काफ़िला ... चलो ! काफ़िले बदलते रहे, आशियाना सिमटता रहा.. हसीन काफ़िले की ख्वाहिश लिए, य़े मुद्दई भटकता रहा.. दूर दरिया के किनारे ... आसमाँ .... करता है इशारे .. इन इशारों को पहचान, मुसाफ़िर! पा जायेगा अपना मुकाम... Dated: 02 May, 2011

दुविधा - मलय राय चौधरी

घेर लिया मुझे,  वापसी के वक्त.  छह या सात होंगे वे.  सभी हथियारबंद.  जाते हुए ही लगा था मुझे कुछ बुरा होने को है.  खुद को मानसिक तौर पर तैयार किया मैंने,  कि पहला हमला मैं नहीं करूँगा. एक लुटेरे ने  आस्तीन पकड कर कहा:  लडकी चाहिए क्या? मामा! चाल छोड कर यहाँ कैसे? खुद को शांत रखने की कोशिश मे  भींचे हुए दाँत.  ठीक उसी पल  ठुड्डी पर एक तेज़ प्रहार और महसूस किया मैंने,  गर्म, रक्तिम-झाग का प्रवाह. एक झटका सा लगा,  और बैठ गया मैं, गश खाकर. एक खंजर की चमक;  हैलोजन की तेज़ रोशनी का परावर्तन और एक फ़लक पर राम,  और दूसरी पर काली के चिन्ह. तुरन्त छँट गयी भीड.  ईश्वरीय सत्ता की शक्ति शायद कोई नहीं जान सकता.  जिन्नातों की-सी व्यवहारिकता: मानव-मन की दुविधा -  प्रेम से प्रेम नहीं कर सकता. वे छह-सात लोग,  घेर रखा था जिन्होने मुझे; रहस्यमयिता से गायब हो गये.                दोतन - मलय राय चौधरी                          (१९८६)                अनुवाद - दिवाकर एपी पाल  Dated: 27 April, 2011.

"प्रस्तुति" (प्रस्तुति(१९८५)- मलय राय चौधरी) का हिंदी अनुवाद

कौन कहता है, बर्बाद हूँ मैं, बस यूँ, कि विष-दंत, नख हीन हूँ मैं? क्या अपरिहार्यता है उनकी? कैसे भूल सकते हैं वो खंजर उदर में मूठ तक धंसा हुआ? इलायची की हरी पत्तियाँ प्रतिरोध के लिए, घृणा एवं रोष मे कलारत; हाँ, युद्ध की भी; साँस-विहीन, बंधक, सन्थाल औरत फटे फ़ेंफ़डों से सुर्ख; विरक्त खन्जर.. गर्वान्वित खङग का हृदय से खिंचना? निःशब्द हूँ मैं संगीतहीन, गीतहीन. शब्दों के नाम पर, सिर्फ़ चीत्कारें. वन की शब्दहीन बू. सन्यास-रिश्तों और पापों का कोण; प्रार्थी एक आवाज़ का, जो कराहों को वापस बदल सके. सहन योग्य शक्ति में; निर्भय बारूद की विभीषिका से: अपंग दयालुता की- उम्मीद ही मूर्खता है- जुए की बिसात पर मैं, खंजर दाँतों में दबाए घेर रखा है मुझे, चारों ओर से, चाय और कौफ़ी की धार ने, मुँह-माँगी मज़दूरी की बेडियों में जकडा; जरासंध के जंघा की तरह विभाजित, हीरों-सी आभा हराने की कला ही एकमात्र विद्वता. बेचारगी में चोरों की ज़ुबान, को संगीत मानकर. मोम-सा नाज़ुक प्रेम, सेब-सा लालिम जिस्म. समागम से पूर्व; चींटी का पँख-हीन हो जाना. खम ठोंक-कर सर्व-शक्तिमान को ललकारता हूँ मैं, ब्रम्हांड को छोड जाने को च

Just a small thought..

प्रेम का बंधन न बाँधो पिया; बस प्रेम-ही-प्रेम हो जीवन में; जल-सिंधु के प्रवाह सम, अंत:हृदय सागर-कूल.. Dated 26 March, 2011

बदला मनुष्य - मलय रॉय चौधरी

खतित; धर्म-च्युत: और ज़िहाद को मुखातिब।  राजश्री-हीन, एक सम्राट पतित स्त्रियाँ- हरमगामी।  नादिर शाह से तालीमशुदा तलवार को चूम, जंग को तैयार हवा पर सवार घोडी; मशालयुक्त मैं घुडसवार।  टूटे-बिखरे जंगी शामियानों की तरफ़ बढता हुआ मैं।  धू-धू जलते नगर के दरमियान; एक नंगा पुजारी- शिवलिंग के साथ फ़रार।                 पलटा मानुश - मलय रॉय चौधरी                                (1985)                 अनुवाद - दिवाकर एपी पाल  Dated: 21 March, 2011

आज फिर

आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है;  आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था.  सुबह के धुंधलके में,  लालिम रोशनी के साथ;  एक नई मंज़िल का साथ देखा था.  एक पुराना मर्ज़ था,  सीने में दबा-सा; उसका ही खातिब,  इलाज देखा था। मरासिमों के फ़ंदे,  घुटन दे रहे थे;  मरासिमों से खुद को  आज़ाद देखा था। सेहर नया है,  नई इक सोच है;  इस सोच से मुखातिब, खुद को एक बार देखा था। आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है,  आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था।                  7 मार्च 2011

रेगिस्तान

राहगीरों के सुर्ख चेहरे गीला बदन, सूखा गला. आधी खाली मशक. ऊँटों के काफ़िले: उनकी घन्टियों की आँधी के साथ जुगलबन्दी. रेत के सूखे टिब्बे; भूरा, रेत का गुबार. पीली, चिलचिलाती धूप. हरियाली के नाम पर कैक्टस के छोटे-छोटे पौधे. आज: रेगिस्तान में ऊँट नहीं चलते; चलती हैं एयर-कन्डीशंड गाडियाँ. मशक की जगह ठन्डी, मिनरल वाटर की बोतलें. आई-पौड का संगीत तो है; पर एकाकी कानों में सीमित; शान्तिप्रद! बहुत कुछ बदल गया! नहीं बदला तो बस: भूरा, रेतीला गुबार और कैक्टस के छोटे-छोटे पौधे..                           Dated: 1st March,2011

Dated: 26 February,2011

वन मे हिरणी हुई सतृष्ण. जेठ दुपहरी, जल विहिन.. भीषण लू, मरुस्थल की रेत; जलते हैं खुर: बचने को धधकती सी ज़मीन से भागती है वो तेज़.. बेचैन.. तरु-वर की छाँव, दूर नहीं; पर पानी कहाँ! रेगिस्तान मे बनता एक प्रतिबिम्ब: दौडती है वो, हिरणी; जल विहिन.. मरीचिका: जीवन की अभिलाशा.. जरुरत: कुदरत का खेल..

Bekhayali ka khayal.... in words..

खूशबू ये तेरी, हवा जो लायी है; हमपे ये कैसी, खुमारी छाई है. खोया मैं तेरे, दिलकश ख्यालों में; सोया मैं तेरी, चाहत के ख्वाबों में. रातों को जागूँ, दिन को तड्पूँ.. बेख्याली में भी, तेरा ही ख्याल है; क्या है ये, बस यही सवाल है.. dated: 20 Nov, 2010

A new take on Hindi Poetry!!!!

Ek aur din dhal gaya, Bojhil aur Laachaar sa; Stabdh Chandni ko Kohre ne Chhanni sa dhank rakha hai.. Shayad Ous ki boond se bheega hoga, Ye gaal geela maalum padta hai; Aansoo to ab aate nahi, In pathrayi aankhon me. Zinda rahne ki chaahat hai, Pata nahi kaise; Safar ye kaisa hai, Chalna bhi Roz hai aur jana kahin nahi. Manzil kya hoti hai, Jana nahi ab tak; Bas bezar sa safar hai Pagdandi ke raaste... Dated: 16 January,2011

Undefined!!!!

भीगी है रात, ऒस की बूँदों से. रजनीगन्धा सी महकती चान्दनी.. नि:शब्द, स्तब्ध, चाँद अपनी ही धुन में; झिंगुरों की बेज़ार सी ये तान. सारा जहाँ सोया होगा ; जागता हूँ मैं तन्हा क्यूँ . जागता हूँ मैं तन्हा क्यूँ... . Dated:20 November,2010

Tu..

तू, मेरे ख्वाबों में बसी है; तू, मेरे होंठों की हँसी है. तू, मेरे दिल कि दुआ है; तुझसे मिलके, मुझको कुछ हुआ है. तुझसे ही बंधी है, मेरे साँसों की डोर; जाउँ, तो जाउँ कहाँ, जाउँ जो तुझे छोड. आजा मेरी बाहों में, खो जाएँ हम संग; आओ रंग जायें अब, दोनों एक ही रंग.. Dated: 4th January,2011

a new take on poetry....

एक और दिन ढल गया, बोझिल और लाचार सा; स्तब्ध चांदनी को कोहरे ने छन्नी सा ढँक रखा है.. शायद ऒस की बूँद से भीगा होगा, य़े गाल गीला मालूम पडता है; आँसू तो अब आते नहीं, इन पथरायी आँखों में. जिन्दा रहने की चाहत है, पता नहीं कैसे; सफ़र ये कैसा है, चलना भी रोज़ है और जाना कहीं नहीं. मंज़िल क्या होती है, जाना नहीं अब तक; बस बेज़ार सा सफ़र है पगडन्डी के रास्ते... Dated: 16 January,2011

क्यूं

गुलपोश ये बदन लोहबान सी महकती अदा; होंठों को तेरे छूने से खिलखिलाने लगी ये फ़िज़ा. रंगीन हुआ समाँ रौशन हुआ जहाँ; रेशम सी नाज़ुक अलकें जैसे घिर आई हो घटा. इन घटाओं की बारिश मे भीगने की ख्वाहिश; फ़िरते हैं तेरे आगे-पीछे, दीवानों के माफ़िक. आवारा तेरी नज़रें, गवारा नहीं मुझको. देखती हैं क्यूँ जमाना, जमाना क्यूँ देखे तुझको??            22 अक्टूबर 2010

Bekhayali..

Khushboo ye teri,  Hawa jo layi hai;  Humpe ye kaisi,  khumari chhayi hai.   Khoya mai tere,  dilkash khayalon me;  Soya mai teri,  Chaahat ke khwabon me.   Raaton ko jaagun,  Din ko tadpun..  Bekhayali me bhi,  Tera hi khayal hai;  Kya hai ye,  Bas yahi sawaal hai..                  dated: 20 Nov, 2010