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अस्तित्व - मलय राय चौधरी

सन्न- आधी रात को दरवाजे पर दस्तक. बदलना है तुम्हे, एक विचाराधीन कैदी को. क्या मैं कमीज़ पहन लूँ? कुछ कौर खा लूँ? या छत के रास्ते निकल जाऊँ? टूटते हैं दरवाजे के पल्ले, और झड़ती हैं पलस्तर की चिपड़ियाँ; नकाबपोश आते हैं अंदर और सवालों की झड़ियाँ- "नाम क्या है, उस भेंगे का कहाँ छुपा है वो? जल्दी बताओ हमें, वर्ना हमारे साथ आओ!" भयाक्रांत गले से कहता हूँ मैं: "मालिक, कल सूर्योदय के वक्त, उसे भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला".                अस्तित्व (१९८५) - मलय राय चौधरी                 अनुवाद: दिवाकर एपी पाल

एक बूँद

प्रेरणा: प्रभात झा https://www.facebook.com/note.php?note_id=217835308263751 एक बूँद जो जहाँ जाए, उसी की हो जाए एक बूँद, जो रेत में गिरे तो खो जाए. एक बूँद, प्यासे की प्यास नहीं बुझाती; पर एक बूँद, जो प्यासे को आस है जगाती. एक बूँद, जो दिखती तो है, पर अस्तित्व नहीं रखती; एक बूँद, जिसकि हस्ती मिसाल कायम है करती. पर जब मिल जाए एक-एक बूँद; सैलाब बन, सेहरा को हरियाए. उस एक बूँद को सलाम, जो जन-सैलाब को रास्ता है दिखाए.. Dated: 22 August,2011

प्रस्तुति - मलय राय चौधरी

कौन कहता है कि बर्बाद हूँ मैं? बस यूँ, कि विष-दन्त नख-हीन हूँ? क्या अपरिहार्यता है उनकी? कैसे भूल गए वो खन्जर? उदर में मूठ तक घुसा हुआ? बकरे के मुँह में इलायची की हरी पत्तियाँ, वे सब घटनाएँ? घृणा-कला, क्रोध-कला, युद्ध-कला! बन्धक युवती सन्थाल; फ़टे फ़ेफ़ड़ों से सुर्ख, खुखरी की चमकती बेचैनी? वो सब? हृदय के खून से लथपथ, खिंचे हुए गर्वान्वित चाकू? गीतहीन हूँ मैं, संगीतहीन- सिर्फ़ चीत्कारें जितना खोल सकता हूँ मुख- निर्वाक वन की भेषज़ सुगन्ध; हरम - सन्यास या अंध-कोठरी! मैंने कभी नहीं कहा, "जिव्हा दो, जिव्हा वापस लो कराहें! दाँत भींचे हुए, सहनशक्ति, वापस लो!" निर्भय बारुद कहेगा: "एक मात्र शिक्षा है मूर्खता". हाथ-हीन, अपंग दांतो में खन्जर दबाए, कूद पड़ा हूँ, जुए कि बिसात पर. घेर लो मुझे, चारों ओर से चले आओ, जो जहाँ हो, नौकरीशुदा शिकारी के जूते में- जरासन्ध के लिंग, जिस तरह विभाजित हीरों की झुलसती आभा। हाथ पैर चलाने के अलावा और कोई ज्ञान, बचा नहीं जगत में सेब के जिस्म की तरह मोम-मखमली नाज़ुक स्नेह समागम से पहले पँख खोल कर रख देगी चींटी. खम ठोंक कर मैं भी ललकारता हूँ ये विक