यादों की गठरी

कहते हैं –
घर में छुपे
किसी सामान से,
बिगड़ जाता है
घर का वास्तु;
और छिन जाती है शांति।
यही सोच कर शायद,
जानबूझकर
छोड़ी थी मैंने,
तुम्हारे मन-मंदिर के
एक अनछुए कोने में –
जहां पहुँच ना सके
तुम्हारे हाथ, या नज़र -
अपनी यादों की गठरी।


छुपाई थी –
स्वार्थ वश
ताकि, दूर चले जाने पर भी
कभी-ना-कभी मेरा ख़याल,
किसी नशेमन में
कर सके तुम्हें बेचैन।


बँधी है उस गठरी में
कितनी ही शामें –
कुछ नर्म, कुछ सर्द
कुछ – पसीने से भीगी।
कितनी सुबहें,
तुम्हारे गीले बालों
से झटकती बूंदें।
कितनी रातें,
मेरे कंधे
पर टिका तुम्हारा सिर,
और सीने पर बिखरी जुल्फ़ें।
कितनी अलसाई दोपहरी -
छोड़े हैं मैंने,
तुम्हारी गर्दन पर,
कान के नीचे –
अपनी तप्त साँसों की भाप;
और तुम्हारी कमर पर
अपनी उँगलियों के एहसास।


शायद किसी सर्द शाम में
तुम्हारे काँपते कंधों पर
रखा था अपनी जैकेट का भार;
देखी थी
किसी उदास शाम में
तुम्हारे गालों पर ढलके अश्क़
और
किसी खिलखिलाती सुबह
की रोशनी-सी,
तुम्हारे होंठों पे हँसी।


भारी थी बहुत,
जब बांधी थी मैंने वो गठरी –
अपने अकेले कंधे पर उसका बोझ
गवारा नहीं था मुझे!
हाँ – स्वार्थी था मैं –
छोड़ दिया था मैंने
जानबूझकर!


इतने सालों बाद, आज
उस गठरी को बाहर निकाल
फेंक देना चाहता हूँ!
जला देना चाहता हूँ!
बहा देना चाहता हूँ!
पर उस कोने तक पहुँचने से पहले
दरवाज़े पर लटका है एक
नया, भारी-सा ताला;
और मेरे हाथ में पड़ी है एक,
पुरानी, छोटी सी चाभी।

                5 अक्टूबर, 2020

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