डर

शाम की धुंधली रोशनी
की कसम,
आने वाली हर रात से
डरता हूँ.
एक ढर्रे पर चल रही है ज़िन्दगी
अर्सा बीत गया है यूँ ही;
मैं किसी भी नई शुरुआत से
डरता हूँ..

पौ-फ़टती हुई किरणें लाती होंगी
उम्मीद का उजाला,
मैं उम्मीद की किसी बात से
डरता हूँ.
रात के अन्धेरे में
साया भी साथ नहीं होता;
मैं अपने साये के भी साथ से
डरता हूँ..

पास न है कुछ
खोने को भी,
पर खोने के एहसास से
डरता हूँ.
जो भी हों
हालात मेरे;
पर बदले हुए हालात से
डरता हूँ..

डर-डर के जीता हूँ
रोज़ यूँही
मैं ज़िन्दगी की हार से
डरता हूँ.
मौत वो कैसी होगी
ज़िन्दगी से अलग;
मौत से लडकर,
हर रोज़ मैं मरता हूँ..

मैं ज़िन्दगी के खयाल से
डरता हूँ.
और हर रोज़ एक नई
मौत मैं मरता हूँ..
Dated: 15 May,2011

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