ओह, मैं मर जाऊंगा, मर जाऊंगा, मर जाऊंगा। दग्ध उन्माद से तड़प रहा, ये मेरा जिस्म क्या करूं, कहां जाऊं, जानता नहीं; ओह, थक गया हूं मैं। सारी कलाओं के पुष्ठ पर लात मार, चला जाऊंगा, शुभा! शुभा - जाने दो मुझे, और छुपा लो, अपने आंचल से ढंके वक्ष में। काली - विनष्ट, केसरिया पर्दों के खुले साए में आखिरी लंगर भी छोड़ रहा है मेरा साथ, सारे लंगर तो उठा लिए थे मैंने! अब और नहीं लड़ पाऊंगा, लाखों कांच के टुकड़े प्रांतष्थ में चुभते हुए जानता हूं, शुभा, अपनी कोख फैलाओ, समेट लो - शांति दो मुझे। मेरी हर नब्ज़, एक उद्दत्त रुदन का गुबार, ले जा रही है हृदय तक अनंत वेदना से संक्रमित - मस्तिष्क प्रस्तर सड़ रहा है! क्यूं नहीं तुमने मुझे जन्म दिया, एक कंकाल के रूप में? चला जाता मैं दो अरब प्रकाश वर्ष दूर - और नतमस्तक हो जाता खुदा के समक्ष पर, कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कुछ भी नहीं। उबकाई आती है, एक से अधिक चुम्बन से। भूल जाता हूं, कई बार मैं बलात् संभोग के वक्त, सामने पड़ी स्त्री को और लौट आता हूं अपनी काल्पनिक दिवाकर समवर्णी - तप्त वस्ती में। नहीं पता मुझे, ये क्या है, पर ये मेरे अंतर्मन म