अम्माँ - तबिष खैर

इस घर में
सीढ़ीयों के नीचे,
जहाँ पलस्तर चिपड़ियों में बदल
झड़ता है इसके कमरों से,
गलियारों का
जाना-पहचाना सूनापन
मैं तुम्हारी धीमी पदचाप सुनता हूँ,
अम्माँ,
रुक-रुक कर आती हैं जो.


गर्मी की लंबी दोपहर,
जैसे घर के भीतर बिताए;
पानी-पटाई खस की टट्टीयाँ;
और शीतल पेय-
बर्फ़, आम या नींबू के,
कटे हुए तरबूजों से सजे प्लेट.


धीरे-धीरे तुम देखती हो,
हर वो नई खरोंच,
पर्दों पर,
पहली बरसात से पहले
जिन्हें सिलना होगा
ये धूप से बचाव करती हैं;
एक छज्जे की जरुरत पूरी करती हैं,
गठिया-ग्रस्त जोड़ों पर
तुम कमरे-से-कमरों में
घूमती हो
वर्षों के नुकसान का
मनन करती
कि कब भूत बिसर जाएगा,
या कब तक
वर्तमान चलता जाएगा.


घर की वस्तु-स्थिति को
महसूस करने के लिए,
तुम्हे चष्मा भी नहीं चाहिए,
जबकि एक दूरी से
नाती-पोतों को भी नहीं देख सकती;
एक बार उल्टा पहना था तुमने ब्लाउज़.


कुछ भी नहीं बदला,
अम्माँ,
अब तक तो नही.
हालंकि तुम्हारे उठाए कदम,
कभी कोनों को तुममें नहीं बदलते,
सफ़ेद माँड़ दिए साड़ी मे,
साबुन की खुशबू से घिरी,
और सभी पर्दे,
एक अर्से से उतार लिए गए हैं.


                    अम्माँ - तबिष खैर
                    अनुवाद - दिवाकर एपी पाल

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