नज़्म और जज़्बात
A reply to this poem titled "बेनज़्म रात ":
बेकरार क्यूँ हैं.
अपने ही दिल-ओ-दिमाग मे
तकरार क्यूँ है..
क्यूँ नहीं ख्वाब
आँसू बनकर पलकों पे आते,
चट्टान सा ये बोझ सीने पर,
बे-अल्फ़ाज़ क्यूँ है..
आज नज़्म अधूरी है,
कल ख्वाब अधूरे होंगे;
मरासिमों और मरिचिकाओं मे उलझकर,
ये ज़िन्दगी अधूरी होगी..
मकड़-जाल सा तिलिस्म ये कैसा,
घुटन देता है ये जाने क्यूँ..
मगर, आज़ाद हो जाऊँ जिस दिन इन से,
न नज़्म होंगे, न जज़्बात ही होंगे.
Dated:3 June, 2011
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