प्रवासी - तबिष खैर
नए पैरों पर चलना
सालता है:
व्यञ्जनों का अभिशाप,
लड़खड़ाते स्वर.
और तुम,
जिसके लिए मैनें
अपना साम्राज्य त्याजा;
कभी उसे प्यार न कर सका,
जो मैं थी.
मेरे अतीत में दिखता है तुम्हे;
सिर्फ़
शल्क,
और खर-पतवार.
कभी
एक सुरीली आवाज़ की स्वामिनी,
आज दो पैर हैं मेरे पास.
अब मैं सोचती हूँ,
कभी-कभी,
क्या ये तिज़ारत, सही थी?
Immigrant - तबिष खैर
अनुवाद - दिवाकर एपी पाल
Dated- 28 June,2011
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