"छलकते पैमाने" हिन्दुस्तानी कवित्त में मेरे प्रयोगों का एक ब्लॉग है."छलकते पैमाने" में अब आप कुछ आधुनिक, अन्य भाषाओं की कविताओं के हिन्दी अनुवाद भी पाएंगे..
आशा है, "छलकते पैमाने" का उद्देश्य जो, हिन्दी साहित्य का विश्व-धारा में गौरवांवित स्तर पर संयोजन है, में कुछ सहयोग करेगी..
गांव के एक छोर पर मेरा घर था, और कभी गांव से बाहर जाना मेरे नसीब में 10 साल की उम्र तक आया नहीं। 10 साल की उम्र में पिताजी ने नवोदय विद्यालय की परीक्षा दिलवाने के लिए पहली बार मुझे गांव से मुजफ्फरपुर तक का सफर कराया था। ये, 1992 की बात रही होगी शायद। आज भी बिलकुल साफ साफ याद है मुझे, वो पहला सफर। मां ने ठेकुआ, निमकी और लिट्टी, थोड़े प्याज और हरी मिर्च के साथ बांध कर दिया था, जो खादी के चारखाने प्रिंट के थैले में (हम उसे झोला बोलते थे) रख कर पिताजी और मैं, मुंह-अंधेरे निकल गए थे। पड़ोस वाले महतो चाचा ने अपनी बैलगाड़ी से हमें कस्बे तक पहुंचाया था, उनको हाट करना था, और हमें आगे मुज़फ्फरपुर तक जाना। यहां से हमने एक बस ली थी, जिसने मुज़फ्फरपुर पहुंचा दिया था 7 बजे तक। परीक्षा सेंटर के बाहर पहुंचने में हमें 15-20 मिनट और लगे होंगे। परीक्षा 10 बजे से होनी थी, तो पिताजी ने एक अखबार खरीदा, और उसे बिछा कर हम दोनो ने पहले उसपर बैठ कर खाना खाए, और फिर आजू-बाजू लेट गए। मेरी आंख लग गई थी, पर पिताजी शायद सिर्फ कमर सीधी करना चाहते थे। दो घंटे का पेपर रहा होगा, और प्रश्न क्या क्या थे मुझे याद नहीं। म
पिछले कुछ दिनों से एक दांत दर्द दे रहा था पता नहीं क्यों पर, सड़ चुका था वह। शायद, बचपन की चॉकलेटों की मिठास थी वजह, या रोज रात की दूध, या मटन चिकन के फँसे टुकड़े जो कुल्ले से साफ न होते थे। या शायद जवानी की लापरवाहियाँ - अक्सर रात की मज़लिस के बाद सुबह ब्रश ना करना या फिर दोस्तों के सामने कूल दिखने की कोशिश में, बियर की ढक्कनों के ऊपर आजमाइश या लगातार जलती सिगरेट की कशों से जमी कलिश की परतें। जो भी हो, सच - एक दांत सड़ गया था। दर्द, जो अब दांत से बढ़कर पूरे जबड़े पर फैला था। खा रहा था, पेन किलर, दिन के चार-चार, पर यह दर्द वापस उभर आता था! नींद से उठता था मैं बार-बार दिन को काम भी नहीं कर पाता था। उस दांत को निकलवा दिया है मैंने जबड़ा अब खाली-खाली सा लगता है वैसा ही जैसे कोई कड़वा रिश्ता छूट गया हो। अब दर्द नहीं होता दाँतों मे, अब चैन से सोता हूँ रातों को! - 2 नवंबर, 2019
इस घर में सीढ़ीयों के नीचे, जहाँ पलस्तर चिपड़ियों में बदल झड़ता है इसके कमरों से, गलियारों का जाना-पहचाना सूनापन मैं तुम्हारी धीमी पदचाप सुनता हूँ, अम्माँ, रुक-रुक कर आती हैं जो. गर्मी की लंबी दोपहर, जैसे घर के भीतर बिताए; पानी-पटाई खस की टट्टीयाँ; और शीतल पेय- बर्फ़, आम या नींबू के, कटे हुए तरबूजों से सजे प्लेट. धीरे-धीरे तुम देखती हो, हर वो नई खरोंच, पर्दों पर, पहली बरसात से पहले जिन्हें सिलना होगा ये धूप से बचाव करती हैं; एक छज्जे की जरुरत पूरी करती हैं, गठिया-ग्रस्त जोड़ों पर तुम कमरे-से-कमरों में घूमती हो वर्षों के नुकसान का मनन करती कि कब भूत बिसर जाएगा, या कब तक वर्तमान चलता जाएगा. घर की वस्तु-स्थिति को महसूस करने के लिए, तुम्हे चष्मा भी नहीं चाहिए, जबकि एक दूरी से नाती-पोतों को भी नहीं देख सकती; एक बार उल्टा पहना था तुमने ब्लाउज़. कुछ भी नहीं बदला, अम्माँ, अब तक तो नही. हालंकि तुम्हारे उठाए कदम, कभी कोनों को तुममें नहीं बदलते, सफ़ेद माँड़ दिए साड़ी मे, साबुन की खुशबू से घिरी, और सभी पर्दे, एक अर्से से उतार लिए गए हैं.
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