आज फिर

आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है; 
आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था. 
सुबह के धुंधलके में, 
लालिम रोशनी के साथ; 
एक नई मंज़िल का साथ देखा था. 

एक पुराना मर्ज़ था, 
सीने में दबा-सा;
उसका ही खातिब, 
इलाज देखा था।
मरासिमों के फ़ंदे, 
घुटन दे रहे थे; 
मरासिमों से खुद को 
आज़ाद देखा था।

सेहर नया है, 
नई इक सोच है; 
इस सोच से मुखातिब,
खुद को एक बार देखा था।

आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है, 
आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था।

                 7 मार्च 2011

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

दाँत का दर्द

प्रस्तुति - मलय राय चौधरी