हिन्दी ग़ज़ल - पहली
आज हिचकियों के बीच
ये खयाल आया
शायद कहीं उनके खयालों में
मेरा नाम आया;
वक्त फिसलता रहा
मुट्ठी में फँसी रेट की तरह;
हम अकेले तपते रहे
जेठ में - बंजर खेत की तरह।
बेबस नज़रों से
छुप-छुपाकर,
उनकी हर अदा को
देखा है हमने
कशिश से निहार कर।
शायद बुज़दिल थे हम
या सिर्फ़ डरते थे इस बात से
कहीं निकल न जाए धूप,
इन महकती हुई रातों से।
वो आधी रात को उनका याद आना,
वो नंबर डायल कर उन्हे जगाना;
उनकी चिढ़ी आवाज पर,
फ़िकरे कस, उन्हे चिढ़ाना
और नाराजगी पर,
सौरी टू डिस्टर्ब कह
उन्हे मनाना!
इस रूठने मनाने के दौर में
अनचाहे, जुदा हो गए,
जाने किस मोड़ पे
क्या दे सकेगी वापस
ज़िंदगी मुझे
या डसेगी तन्हा शामें
यूँही उलझे उलझे।
30 जुलाई 2010
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