मजदूर - शेरनाज़ वाडिया
सतह से पांच मंज़िल दूर, एक झूले से लटका - मानों बिना सुरक्षा जाल के एक कलाबाज़ । बड़ी कशिश से चुपड़ता है सिमेंट एक बार। बार-बार; और दीवारें खूबसूरत और जीवंत होती जाती हैं - पानी से बची रहेंगी ये, भविष्य में. पर.. उसकी खुद की कोई सुरक्षा योजना नहीं है - अपने स्वास्थ्य और ज़िन्दगी के लिये. टीबी से अवरुद्ध फ़ेंफ़ड़े लगभग फ़ट-से पड़ते हैं लगातार टीसती खाँसी से। उसके सपने और उनकी पूर्ती पुराने आवरण की तरह। छिज़ जाती है - तार-तार होकर और नये - गणित ही गलत हैं - उसकी मजदूरी के अर्थशास्त्र में! घटते, और विभाजित: खोए तज्यअस्तित्व के खपत में। “द लेबरर” – शेरनाज वाडिया अनुवाद – दिवाकर एपी पाल