प्रस्तुति - मलय राय चौधरी


कौन कहता है
कि बर्बाद हूँ मैं?
बस यूँ,
कि विष-दन्त नख-हीन हूँ?
क्या अपरिहार्यता है उनकी?
कैसे भूल गए वो खन्जर?
उदर में मूठ तक घुसा हुआ?
बकरे के मुँह में
इलायची की हरी पत्तियाँ,
वे सब घटनाएँ?


घृणा-कला, क्रोध-कला, युद्ध-कला!
बन्धक युवती सन्थाल;
फ़टे फ़ेफ़ड़ों से सुर्ख,
खुखरी की चमकती बेचैनी?
वो सब?
हृदय के खून से लथपथ,
खिंचे हुए गर्वान्वित चाकू?


गीतहीन हूँ मैं,
संगीतहीन-
सिर्फ़ चीत्कारें
जितना खोल सकता हूँ मुख-
निर्वाक वन की भेषज़ सुगन्ध;
हरम - सन्यास या अंध-कोठरी!


मैंने कभी नहीं कहा,
"जिव्हा दो,
जिव्हा वापस लो
कराहें!
दाँत भींचे हुए,
सहनशक्ति,
वापस लो!"


निर्भय बारुद कहेगा:
"एक मात्र शिक्षा है मूर्खता".


हाथ-हीन,
अपंग दांतो में खन्जर दबाए,
कूद पड़ा हूँ,
जुए कि बिसात पर.
घेर लो मुझे, चारों ओर से
चले आओ, जो जहाँ हो,
नौकरीशुदा शिकारी के जूते में-
जरासन्ध के लिंग, जिस तरह विभाजित
हीरों की झुलसती आभा।

हाथ पैर चलाने के अलावा
और कोई ज्ञान,
बचा नहीं जगत में
सेब के जिस्म की तरह
मोम-मखमली नाज़ुक स्नेह
समागम से पहले
पँख खोल कर रख देगी चींटी.


खम ठोंक कर
मैं भी ललकारता हूँ ये विकल्प---
दुनिया को खाली करो!
निकलो,
निकल जाओ सर्वशक्तिमान!


बंदर के खुजाने वाले
चार हाथों में
शन्ख-चक्र-गदा-पद्म:
अपने ही पसीने के नमक में
लवण- विद्रोह हो
बारुद धाग के साथ धमाके की ओर,
चलता रहे चिंगारी वाक
फ़सल के दुकानदारों,
चले आओ!


शरीर में अन्धकार
लीप-पोत कर
पिल्लों के झगड़े से
गुलज़ार रातों में
कीटनाशक से झुलसे-
अधमरे फ़तिंगों के दोपहरों में,
जमीनी ज्ञान से फ़िसलते केंचुए,
ऊपर आओ-
खन्जर के लावण्य को
फ़िर से इस इलाके में
वापस लाया हूँ मैं.


            प्रस्तुति (१९८५) - मलय राय चौधरी
            अनुवाद - दिवाकर एपी पाल

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