अपवित्र

गांव के एक छोर पर मेरा घर था, और कभी गांव से बाहर जाना मेरे नसीब में 10 साल की उम्र तक आया नहीं। 10 साल की उम्र में पिताजी ने नवोदय विद्यालय की परीक्षा दिलवाने के लिए पहली बार मुझे गांव से मुजफ्फरपुर तक का सफर कराया था। ये, 1992 की बात रही होगी शायद। 

आज भी बिलकुल साफ साफ याद है मुझे, वो पहला सफर। मां ने ठेकुआ, निमकी और लिट्टी, थोड़े प्याज और हरी मिर्च के साथ बांध कर दिया था, जो खादी के चारखाने प्रिंट के थैले में (हम उसे झोला बोलते थे) रख कर पिताजी और मैं, मुंह-अंधेरे निकल गए थे। पड़ोस वाले महतो चाचा ने अपनी बैलगाड़ी से हमें कस्बे तक पहुंचाया था, उनको हाट करना था, और हमें आगे मुज़फ्फरपुर तक जाना। यहां से हमने एक बस ली थी, जिसने मुज़फ्फरपुर पहुंचा दिया था 7 बजे तक। परीक्षा सेंटर के बाहर पहुंचने में हमें 15-20 मिनट और लगे होंगे। परीक्षा 10 बजे से होनी थी, तो पिताजी ने एक अखबार खरीदा, और उसे बिछा कर हम दोनो ने पहले उसपर बैठ कर खाना खाए, और फिर आजू-बाजू लेट गए। मेरी आंख लग गई थी, पर पिताजी शायद सिर्फ कमर सीधी करना चाहते थे। 

दो घंटे का पेपर रहा होगा, और प्रश्न क्या क्या थे मुझे याद नहीं। मुझे याद है, कि परीक्षा देकर बाहर निकलने पर पिताजी ने पूछा था - "बचुवा, लिखले ना पूरा? कुच्छो छोड़ ना ना दिया?" हमने भी खुश होकर जवाब दिया - "सब बढ़िया लिखनी बाबू!" पिताजी ने एक बार हाथ जोड़, आसमान की तरफ देखा और अपने इष्ट देव बजरंग बली को याद किया शायद। फिर हम वापस चले आए। 

वापसी में, कस्बे तक बस से और वहां से ट्रेकर पर सवारी लेकर हम गांव के नजदीक पहुंचे, चाचाजी ने हमारा इंतजार नहीं किया था कस्बे में। गांव तक पहुंचते पहुंचते शाम हो गई थी। सर्दी का मौसम था, तो दिन छोटे थे। शायद 5 बज रहे होंगे शाम के, पर कुहासा घिर चुका था और अंधेरा पूरा। उस ज़माने में बिजली पहुंची नही थी हमारे गांव तक। कटाई भी हो चुकी थी, तो खेतों में पहरा देने की भी जरूरत नहीं थी लोगों को, इस कारण इस वक्त सिर्फ कुत्तों और सियारों की आवाज ही सुनाई दे रही थी।

मेन रोड से गांव की तरफ हम खेतों के बीच से होकर जा रहे थे, मैने पिताजी की कलाई बहुत जोरों से पकड़ रखी थी। मुझे डर लग रहा था, लेकिन पिताजी का डर इस अज्ञात डर से बड़ा था, तो मैंने अपना मुंह बंद ही रखना मुनासिब समझा।

हम लोग थोड़ी ही दूर चले होंगे, की पिताजी अचानक लड़खड़ा कर गिर पड़े। मैं छोटा तो था ही, और साथ ही बिलकुल अनुभवहीन। मुझे तो गांव का रास्ता भी नही पता था। मैने पिताजी को उठाने की कोशिश की, तो देखा कि उनका पूरा शरीर अजीब तरह से हिल रहा था, और मुंह से झाग निकल रहा था। एक अजीब सी आवाज भी निकल रही थी, मानो उनका गला किसी ने दबोच रखा हो। 

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। में वहीं बैठ कर जोर से चीखें मार कर रोने लगा। रोते रोते, मैंने ध्यान दिया की आस पास से कुछ आवाजें आ रही हैं - पत्तों के सरसराने की, और एक अजीब सी भाषा, जो मेरी समझ से बाहर थी। अब मेरी घबराहट खौफ में बदलती जा रही थी। दादी की कहानियों के सारे पिशाच मेरी कल्पना से बाहर आकर मेरे चारों ओर नाचने को तैयार बैठे थे। मैंने डर कर आंखें मींच ली। आहटें मेरे करीब चली आ रही थी, और मेरे दिल की धड़कन उसी अनुपात में तेज। 

जब वो आवाज बहुत करीब आ गई, तो मैंने मींची हुई आंखों को हलका सा खोला। कुछ लोग थे वो, पर आम इंसानों जैसे नहीं दिखते थे। उनका पहनावा बहुत अलग था और साथ ही उनकी भाषा भी। 

वो लोग नज़दीक आए, पाँच थे वो कुल। चार लोगों ने मिलकर पिताजी को उठाया, और एक ने मुझे, और हमें एक साथ कहीं ले चले। खौफ के कारण मेरी आवाज रुंध चुकी थी, और मुझे नही पता था कि अब क्या होगा। इसके बाद क्या हुआ, मुझे याद नहीं, शायद डर के मारे मैं भी बेहोश हो गया था। 

अगली सुबह जब मेरी आंख खुली, तो मैं एक तंबू के अंदर पड़ा हुआ था। अजनबी जगह को देखकर मैने जब खुद के दिमाग पर जोर डाला तो पिताजी की याद आई। में हड़बड़ा कर उठा और बाहर भागा। 

बाहर आया तो देखा, पिताजी वहां बैठ कर चाय सुड़क रहे हैं। उनको देख कर मेरी जान में जान आई, मैं भाग कर उनसे चिपक गया। कल की अजीब सी घटना मेरे जेहन में बिलकुल ताज़ी थी। पिताजी से चिपक कर मैंने नजर दौड़ाई, आस पास कई तंबू थे, थोड़े गंदले। कुत्ते और सूअर आस पास घूम रहे थे। एक आदमी मेरे लिए दूध ले आया, एक पुराने एल्यूमीनियम के कटोरे में। मैंने लेने से पहले पिताजी की तरफ देखा, उन्होंने हामी में सिर हिलाया तो मैंने दूध ले लिया और एक सांस में गटक गया। 

दूध पी लेने के बाद, पिताजी ने मुझे खुद से अलग किया, और फिर खड़े हो गए। उन्होंने अपने सामने खड़े एक बुजुर्ग को नमस्कार किया, जिसके बाद उस बुजुर्ग ने मुझे देखकर एक बार मुस्कुरा दिया, और फिर आगे बढ़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरा। 

पिताजी ने मेरा हाथ थामा और फिर हम गांव चले आए। रास्ता दूर था, पर अब  सर्दी की मीठी वाली धूप थी। पिताजी ने रास्ते में बताया, अपने मिर्गी के बारे में, मेरी बेहोशी के बारे में, और उन भीलों की मदद के बारे में। मुझे ज्यादा समझ तो नहीं आ रहा था, पर थोड़ी घिन-सी बनी हुई थी, आखिर इतने गंदे तंबू से निकल कर आया था।  

पिताजी ने घर आकर स्नान किया, और मुझे भी करवाया। दादी ने घर में शुद्धिकरण की पूजा से पहले हम दोनो के घुसने पर पाबंदी लगा दी थी। 

उस समय तो मैं समझ नहीं पाया था, पर आगे जब नवोदय विद्यालय में गया, किताबों में पढ़ा, और जिंदगी में देखा तो समझ आया कि वो मददगार कौन थे। हमारे समाज से अलग, एक घुमंतु समाज भी है, जिनकी जमीन अपनी नहीं, सिर्फ आसमान अपना है। ऐसे ही एक घुमंतु कबीले ने मेरे पिताजी और मुझे एक नई जिंदगी दी थी। हां, लेकिन उनके छूने से, और उनके घर का चाय/दूध पीने से हम अपवित्र हो गए थे, जिसका निदान पंडितजी ने दक्षिणा लेकर कर दिया था। 

लेकिन एक ही सवाल आज भी है, क्या पंडितों के उन उपायों से कभी पवित्र हो पाएंगे ये भील, और उनके कबीले?

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