जनता भूल जाएगी

आंकड़ों की बाज़ीगरी में
लग चुके हैं
मानवीय संवेदनाओं के सौदागर।

यकीन है उन्हें,
याददाश्त क्षणभंगुर है
जनता की -
भूल जाएगी!

धर्मांधता और जातिवादी
नारों के शोर में -
अपनों की मौत
और अपने खुद के आंसू - 
शमशानों में 
जलती चिताओं की लपटती लौ
गंगा में बहती
पानी से फूल चुकी लाशें - 
दफ़न, ज़मींदोज़ 
अनजान लाशें, 
जो कभी लोग थे।

जनता भूल जाएगी 
मदद की गुहार पर मिली 
अनजानी शक्लों के हाथों -
नाम, पता, शक्ल, या
जाति-धर्म पूछे बिना
अनजाने कंधे,
सहारे और 
खून और हवा।   

याद रहेगा बस
अपना मजहब, अपने धर्मगुरु,
अपनी जाति, अपना गुमान!
अपनी नफरत
वापस सर उठाएगी
और उंगलियां चलेगी वोट पर
या कटारें, गड़ांसे, या जुबान।

जो भी हो,
जनता भूल जाएगी।
    
                        - 12 अगस्त, 2021

Comments

Popular posts from this blog

दाँत का दर्द

प्रस्तुति - मलय राय चौधरी