Posts

Showing posts from July, 2011

अम्माँ - तबिष खैर

इस घर में सीढ़ीयों के नीचे, जहाँ पलस्तर चिपड़ियों में बदल झड़ता है इसके कमरों से, गलियारों का जाना-पहचाना सूनापन मैं तुम्हारी धीमी पदचाप सुनता हूँ, अम्माँ, रुक-रुक कर आती हैं जो. गर्मी की लंबी दोपहर, जैसे घर के भीतर बिताए; पानी-पटाई खस की टट्टीयाँ; और शीतल पेय- बर्फ़, आम या नींबू के, कटे हुए तरबूजों से सजे प्लेट. धीरे-धीरे तुम देखती हो, हर वो नई खरोंच, पर्दों पर, पहली बरसात से पहले जिन्हें सिलना होगा ये धूप से बचाव करती हैं; एक छज्जे की जरुरत पूरी करती हैं, गठिया-ग्रस्त जोड़ों पर तुम कमरे-से-कमरों में घूमती हो वर्षों के नुकसान का मनन करती कि कब भूत बिसर जाएगा, या कब तक वर्तमान चलता जाएगा. घर की वस्तु-स्थिति को महसूस करने के लिए, तुम्हे चष्मा भी नहीं चाहिए, जबकि एक दूरी से नाती-पोतों को भी नहीं देख सकती; एक बार उल्टा पहना था तुमने ब्लाउज़. कुछ भी नहीं बदला, अम्माँ, अब तक तो नही. हालंकि तुम्हारे उठाए कदम, कभी कोनों को तुममें नहीं बदलते, सफ़ेद माँड़ दिए साड़ी मे, साबुन की खुशबू से घिरी, और सभी पर्दे, एक अर्से से उतार लिए गए हैं.                         

मोटर- बाईक - मलय राय चौधरी

मोटर-बाईक येज़्डी - य़ामाहा पर हूँ मैं जब फ़लक की चुनौती और रेत की आँधी के मध्य मेरे पैरों के निकट फ़टते हैं; खूबसूरत, सजावटी धूम्र-गुबार। बिना हेल्मेट के, और अस्सी की रफ़्तार में हवा को चीरता, मध्य-ग्रीष्म की चाँदनी तले खोती हुई सुदूर ध्वनियाँ; तेज़-चाल लौरियाँ - पलक झपकते गायब सोचने के वक्त से महरुम; पर हाँ, अपघात किसी भी समय संभावित, भंगार में बदल जाऊँगा; सूखाग्रस्त खेत में ढेर।                     मोटर-बाईक - मलय राय चौधरी                     अनुवाद - दिवाकर एपी पाल

मानव-शास्त्र - मलय राय चौधरी

मैं लुटने को तैयार हूँ, आओ, ओ घातक चमगादड़! फ़ाड़ दो मेरे कपड़े, उड़ा दो मेरे घर की दीवारें बन्दूक चलाओ मेरी कनपटी पर और मुझे कारा में पीटो. फ़ेंक दो मुझे चलती ट्रेन से: बंधक रखो और नज़र रखो मुझपे; मैं एक भू-गर्भीय यंत्र हूँ, परमाणु युद्ध की झलक देखने को जीवित एक अधर्मी खच्चरी का नीले-लिंगी अश्व द्वारा गर्भाधान।                प्रौत्योघात - मलय राय चौधरी                अनुवाद - दिवाकर एपी पाल

नज़्म और जज़्बात

A reply to this poem titled "बेनज़्म रात ":  इस बेनज़्म सी रात में  बेकरार क्यूँ हैं.  अपने ही दिल-ओ-दिमाग मे  तकरार क्यूँ है..  क्यूँ नहीं ख्वाब  आँसू बनकर पलकों पे आते,  चट्टान सा ये बोझ सीने पर,  बे-अल्फ़ाज़ क्यूँ है..  आज नज़्म अधूरी है,  कल ख्वाब अधूरे होंगे;  मरासिमों और मरिचिकाओं मे उलझकर,  ये ज़िन्दगी अधूरी होगी..  मकड़-जाल सा तिलिस्म ये कैसा,  घुटन देता है ये जाने क्यूँ..  मगर, आज़ाद हो जाऊँ जिस दिन इन से,  न नज़्म होंगे, न जज़्बात ही होंगे.                  Dated:3 June, 2011

खुशनुमा कत्ल

अक्स आइने में, अकेला नहीं है.. साथ मरदूद, गुलफ़ाम का कातिल भी है खड़ा.. कैसा ये जुर्म है, मरहूम और कातिल एक ही शीशे में हैं खड़े.. और गुस्ताखी की इन्तहाँ तो देखो, एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए भी जा रहे.. अजीब इत्तेफ़ाक है.. कातिल और कत्ली, साथ में हैं खड़े और देखने वाले, मुबारकबाद हैं दे रहे! dated: 25 June,2011

Poetry Recitation by Mr. Malay Roy Chaudhery