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Showing posts from June, 2011

प्रवासी - तबिष खैर

नए पैरों पर चलना  सालता है:  व्यञ्जनों का अभिशाप,  लड़खड़ाते स्वर.  और तुम,  जिसके लिए मैनें  अपना साम्राज्य त्याजा;  कभी उसे प्यार न कर सका,  जो मैं थी.  मेरे अतीत में दिखता है तुम्हे;  सिर्फ़ शल्क,  और खर-पतवार.  कभी  एक सुरीली आवाज़ की स्वामिनी,  आज दो पैर हैं मेरे पास.  अब मैं सोचती हूँ,  कभी-कभी,  क्या ये तिज़ारत, सही थी?                  Immigrant  - तबिष खैर                     अनुवाद - दिवाकर एपी पाल  Dated- 28 June,2011 

धुआँ

धुआँ ना हुआ,  मानो दीवार-सी हो गई  जाने किस घड़ी,  तकरार वो हो गई.  मुँह फ़ेर के वो  यूँ गए जबसे  कि ज़िन्दगी मेरी  हलकान सी हो गई..  आज भी भीड़ में  जाती है जो नज़र,  मानो ढूँढती है  उनको ही नज़र  आँखें आज भी धुँधली हैं,  धुआँ छँटता नहीं जाने क्यूँ..             Dated: 18 June, 2011

इरोम की कविता (हिन्दी अनुवाद)

आज़ाद कर दो साँकलों से, मेरे पैर काटों से गुँथी ये बेड़ियाँ एक सँकरे कमरे मे बंद; दोषी: जन्म लिया है मैंने, एक उन्मुक्त पंछी की तरह. कारा के अँधेरे कमरे में कई आवाज़ें गूँजती हैं: चिड़ियों की चहचहाहट से भिन्न, नहीं, ये हँसी नही है! नहीं, ये लोरी नहीं है! माँ की छाती से छिज़ा हुआ बच्चा, एक माँ की धीमी सिसकियाँ धव से बिछुड़ी एक स्त्री एक विधवा की कराह: एक सिपाही के हाथों जनित, एक चीख. दिखता है, आग का एक गोला और अनुगामी है कयामत. इस आग के गोले को विज्ञान ने दी चिंगारी; भाषित प्रयोगों के कारण. इन्द्रियों के सेवक, सभी सम्मोहन में हैं. नशा, सोच का अभिन्न शत्रु नष्ट कर दी है बुद्धिमता; विचार-जन्य कोई प्रयोग नहीं. पर्वत-श्रृंखला से आते राही का चेहरे पर मुस्कान लिए हँसना: यहाँ मेरे विलाप के सिवा कुछ नहीं! कुछ नहीं, जो दृष्टिगत हो: शक्ति, स्वंमेव दर्शा तो नहीं सकती ! कीमती है मानव जीवन पर जीवन के अंत से पूर्व. बनने दो मुझे अँधेरे का प्रकाश; मधु-रस बोया जाएगा; सच्ची विनाशहीनता का आगाज़ होगा. कृत्रिम परों से सुसज्जित, पृथ्वी के कोने-कोने में; जीवन-मृत्यु की विभाजन रेखा के निकट, भोर का गीत गाया जाएगा, सम्

क्षणिका

वक्त की कमी बराबर रह जाती है, पता नहीं कितना व्यस्त है आदमी.. फ़िर खुदा को क्या कोसना, वो तो कतई फ़ुर्सतमंद नहीं. Dated: 10 June, 2011

क्षणिका

भीड़ में खड़ा था वो; दुनिया की निगाहों से ओझल.. इन्तज़ार, अपनी बारी का, जब उसे भी पहचाना जायेगा.. Dated: 4 June, 2011

बदलाव

आधी रात थी, और चाँद भी आधा था, अधूरा ही था मैं तेरे बिना.. जब आगोश में लिया बादलों ने चाँद को, और खिड़की से किरणें नहीं थी आ रहीं.. ठीक उसी वक्त, एक गीला सा स्पर्श, मेरे होठों पे.. और यूँही, दुनिया मेरी वो ना रही... Dated: 11 June, 2011