a new take on poetry....
एक और दिन ढल गया,
बोझिल और लाचार सा;
स्तब्ध चांदनी को कोहरे ने
छन्नी सा ढँक रखा है..
शायद ऒस की बूँद से भीगा होगा,
य़े गाल गीला मालूम पडता है;
आँसू तो अब आते नहीं,
इन पथरायी आँखों में.
जिन्दा रहने की चाहत है,
पता नहीं कैसे;
सफ़र ये कैसा है, चलना भी
रोज़ है और जाना कहीं नहीं.
मंज़िल क्या होती है,
जाना नहीं अब तक;
बस बेज़ार सा सफ़र है
पगडन्डी के रास्ते...
Dated: 16 January,2011
U write tooo well! Not everyone is blessed with this... keep doing it.. there s alot u can say through this which normally one cant...
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