क्यूं

गुलपोश ये बदन

लोहबान सी महकती अदा;

होंठों को तेरे छूने से

खिलखिलाने लगी ये फ़िज़ा.

रंगीन हुआ समाँ

रौशन हुआ जहाँ;

रेशम सी नाज़ुक अलकें

जैसे घिर आई हो घटा.

इन घटाओं की बारिश

मे भीगने की ख्वाहिश;

फ़िरते हैं तेरे आगे-पीछे,

दीवानों के माफ़िक.

आवारा तेरी नज़रें,

गवारा नहीं मुझको.

देखती हैं क्यूँ जमाना,

जमाना क्यूँ देखे तुझको??


           22 अक्टूबर 2010

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