क्या विषय, क्या विषय!
अरे रबीन्द्रनाथ! पहचाना? नाचा था मैं तुम्हारे साथ? इकतारे पर लोक-गीत की अधूरी धुन बजाई थी भीड़ वाली गली से सुनसान लौंग बाजार तक साथ चलते-चलते बताया था तुमने – तुम सियालदह से आ रहे, और अलमुद्दीन के दफ्तर तक जा रहे। तुम्हारे गर्म, अंगारों-से होंठों पर – जो बने थे आग और पानी से, अब भी पवित्र गीतों की तान थी – कितनी तप्त! तुमने फेंक दिया अपना ऊनी लबादा, जिसमें छुपे थे जोंक – मुझे जोंक दिखे थे! तुम्हारे सुर्ख बदन पर – जोरसांको ठाकुरबाड़ी मे बहुत जोंक होते हैं, बरसात के दिनों मे। मटन कबाब की गंध पर, जब तुमने पूछा – क्या पका रहे हो मियाँ? उसने बोला – पता नहीं तुम्हें! सिर्फ़ साँड़ का माँस। एक खाकर तो देखो। चाय की टपरी पर, गंजे, बकर-दाढ़ी वाले व्लैदिमिर इल्लिच, सुनहरे बालों वाली वेरा इवानोवा यासुलीच और तुम्हारे जैसे चंदीली दाढ़ी वाले एग्जेलरॉड और मार्तोव जिनके गाल काँप रहे थे, और तुमने पूछा था – इनके धड़ कहाँ हैं? जब मैंने नाचना बंद नहीं किया, असहाय था मैं तुमने अपना इकतारा मुझे दान दे देना चाहा क्यूँकि हर किसी ने, मौक़ा पाते ही, छीनी है तुम्हारे कदमों की ताल और अभी, दिन के वक्त भी हैलॉजेन जले है